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चिड़िया मूवी रिव्यू : बचपन, बेबसी और बैडमिंटन का सपना, जानिए फिल्म की कहानी

चिड़िया मूवी रिव्यू : बचपन, बेबसी और बैडमिंटन का सपना, जानिए फिल्म की कहानी

वर्ल्ड सिनेमा से मिले एक्सपोजर के बाद हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में विषयों को लेकर कई स्तरों पर प्रयोग जरूर हुए, लेकिन बच्चों को केंद्र में रखकर बनाई गई फिल्मों के प्रति बॉलीवुड की रुचि हमेशा सीमित ही रही है। 

  • मूवी रिव्यू: चिड़िया
  • ऐक्टर: विनय पाठक,अमृता सुभाष,हेतल गाड़ा,सावर कांबले,बृजेंद्र काला
  • डायरेक्टर: मेहरान अमरोही
  • श्रेणी: Hindi, Drama, Thriller
  • अवधि: 1 Hrs 50 Min
  • क्रिटिक रेटिंग: 3.5/5

एंटरटेनमेंट: बॉलीवुड में जब भी बच्चों पर आधारित फिल्मों की बात होती है, तो गिनती की कुछ फिल्में ही हमारे ज़ेहन में आती हैं। 'तारे ज़मीन पर', 'चिल्लर पार्टी', 'मकड़ी', 'स्टेनली का डिब्बा' जैसी फिल्में वर्षों बाद भी इसलिए याद रह जाती हैं क्योंकि उन्होंने बचपन को सिर्फ एक उम्र नहीं, बल्कि एक संघर्षशील अनुभव के रूप में पेश किया। 

ऐसे ही एक मासूम लेकिन मार्मिक अनुभव से रूबरू कराती है निर्देशक मेहरान अमरोही की फिल्म 'चिड़िया', जो न केवल बच्चों के जीवन की सच्चाइयों को दर्शाती है, बल्कि सामाजिक विडंबनाओं पर भी बेबाक सवाल उठाती है।

बचपन, बेबसी और बैडमिंटन का सपना

‘चिड़िया’ की कहानी मुंबई की एक चॉल में रहने वाले दो मासूम बच्चों – शानू (स्वर कांबले) और बुआ (आयुष पाठक) के इर्द-गिर्द घूमती है। दोनों अपने पिता को एक हादसे में खो चुके हैं और मां वैष्णवी (अमृता सुभाष) अब अपने टूटे परिवार को जोड़ने की जद्दोजहद में लगी हैं। गरीबी इतनी है कि बच्चों को स्कूल से निकाल दिया गया है और गुजारे के लिए वैष्णवी साड़ियों पर फॉल लगाने का काम करती है।

इन हालातों के बीच बच्चों के दिल में एक सपना पलता है – बैडमिंटन खेलने का। चिड़िया (बैडमिंटन शटल), रैकेट, नेट और खेलने की जगह जुटाना इनके लिए किसी असंभव मिशन से कम नहीं, लेकिन यही उनका उत्साह है जो दर्शक को भी रोमांचित करता है।

समाज की संजीदगी और संवेदना का मेल

फिल्म का सबसे खूबसूरत पक्ष यह है कि इसमें किसी नाटकीय खलनायक की मौजूदगी नहीं है। गरीबी और संघर्ष का कारण कोई इंसान नहीं, बल्कि एक व्यवस्था है, जो खुद बिखरी हुई है। चाचा बाली (विनय पाठक), जो फिल्म प्रोडक्शन हाउस में स्पॉटबॉय हैं, खुद अपने संघर्षों से जूझते हुए भी अपने भतीजों के लिए संवेदना और सहयोग का हाथ बढ़ाते हैं।

बच्चे एक टूटी-फूटी ज़िंदगी में अपने बैडमिंटन कोर्ट के सपने को कैसे साकार करते हैं, इसके लिए वे भंगार साफ करते हैं, पुराने कपड़ों से नेट बनवाते हैं, इस्तेमाल किए गए खंभों से खंभे बनाते हैं और फिल्म शूटिंग में काम करते हुए एक्टर श्रेयस तलपड़े से शटल तक हासिल कर लेते हैं। यह एक छोटे सपने के पीछे लगने की वह कहानी है, जिसमें हर किरदार का योगदान किसी परी-कथा की तरह प्यारा लगता है।

भावनाओं की बारिश और मुस्कान की रौशनी

फिल्म अपने दर्शकों को उदासी की बारिश में भीगने के लिए मजबूर जरूर करती है, लेकिन उसी बारिश में एक चमकदार इंद्रधनुष भी खींच देती है। फिल्म की पटकथा में संवाद इतने वास्तविक और सटीक हैं कि सीधे दिल को चीर जाते हैं – तो जिन बच्चों के बाप मर जाते हैं, उन्हें पुलिस खाना खिलाती है?, या उधर पिक्चर में एक ही हीरो होता है, बाकी सब मजदूर होते हैं" जैसे संवाद लंबे समय तक दिमाग में गूंजते रहते हैं।

तकनीकी पक्ष और संगीत

फिल्म की सिनेमैटोग्राफी (विकास जोशी) बेहद प्रभावशाली है। मुंबई की चॉल और शूटिंग के मैदानों को जिस तरह से कैमरे में कैद किया गया है, वह फिल्म को और अधिक प्रामाणिक बनाता है। शैलेंद्र बर्वे का संगीत फिल्म के मिजाज से पूरी तरह मेल खाता है – खासकर 'ए दिल की नन्हीं चिड़िया' और 'दोनों तरफ सन्नाटा' जैसे गीत कहानी की गहराई को और गाढ़ा करते हैं।

अभिनय की बात करें तो अमृता सुभाष ने एक दुखी लेकिन मजबूत मां का किरदार इतने सजीव रूप में निभाया है कि कई दृश्य आंखें नम कर देते हैं। विनय पाठक का सहज अभिनय फिल्म की आत्मा को स्थायित्व देता है। बाल कलाकार स्वर कांबले, आयुष पाठक और हेतल गड़ा की परफॉर्मेंस इतनी स्वाभाविक है कि लगता है हम किसी फिल्म को नहीं, बल्कि अपने पड़ोस के बच्चों की कहानी देख रहे हैं।

इनामुलहक, जो एक दिव्यांग दर्जी के किरदार में हैं, फिल्म में हल्के-फुल्के हास्य का पुट जोड़ते हैं और बृजेंद्र काला जैसे अनुभवी कलाकार छोटी-छोटी भूमिकाओं में भी गहरी छाप छोड़ जाते हैं।

क्यों देखें ‘चिड़िया’?

‘चिड़िया’ सिर्फ एक फिल्म नहीं, एक अनुभव है – जो हमें यह सिखाती है कि सपने केवल पैसे वालों के नहीं होते। यह फिल्म बताती है कि सामूहिक सहयोग और मासूम जिद से बड़े से बड़ा सपना भी साकार हो सकता है। बच्चों के संघर्ष, मां की बेबसी, चाचा की ममता, और समाज की जद्दोजहद को इतनी सहजता से दिखाना ही फिल्म की सबसे बड़ी उपलब्धि है।

 

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