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महाभारत: क्यों श्रीकृष्ण ने नहीं लड़ा युद्ध और केवल बने अर्जुन के सारथी - जानिए इसके पीछे का रहस्य

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महाभारत का युद्ध जितना विशाल और विनाशकारी था, उतना ही रहस्यमयी भी। इस युद्ध में जब-जब आप भगवान श्रीकृष्ण की भूमिका पर नज़र डालेंगे, आपको वह हमेशा सारथी के रूप में दिखाई देंगे – न कि एक योद्धा के रूप में। सवाल ये उठता है कि आखिर भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं युद्ध क्यों नहीं लड़ा? जब वे पूर्ण पुरुषोत्तम विष्णु के अवतार थे, तो उन्होंने शस्त्र उठाने से इंकार क्यों किया? और क्यों सिर्फ अर्जुन के सारथी बनकर उन्हें मार्गदर्शन देते रहे?

श्रीकृष्ण का वचन: 'मैं युद्ध नहीं करूंगा'

महाभारत का युद्ध शुरू होने से पहले जब दोनों पक्ष – पांडव और कौरव – भगवान श्रीकृष्ण के पास सहायता मांगने पहुंचे, तो श्रीकृष्ण ने बहुत साफ शब्दों में एक शर्त रखी। उन्होंने कहा, 'मैं इस युद्ध में कोई शस्त्र नहीं उठाऊंगा, न ही किसी से युद्ध करूंगा। मेरे पास दो विकल्प हैं – एक मेरी नारायणी सेना और दूसरा मैं स्वयं, लेकिन बिना युद्ध किए। तुम दोनों में से जो चाहो, चुन सकते हो।'

दुर्योधन ने श्रीकृष्ण की विशाल सेना को चुना, जबकि अर्जुन ने भगवान श्रीकृष्ण को ही चुन लिया – भले ही वो युद्ध न करें, लेकिन उनके साथ रहना ही उनके लिए सबसे बड़ी शक्ति थी।

श्रीकृष्ण ने अर्जुन के सारथी का काम किया और बिना शस्त्र उठाए ही पूरी युद्धनीति और रणनीति अर्जुन को सिखाई। उन्होंने अर्जुन को गीता का ज्ञान देकर उसे धर्म, कर्तव्य और जीवन का सही मार्ग दिखाया। इस तरह श्रीकृष्ण भले ही युद्ध नहीं लड़े, लेकिन उन्होंने ही अर्जुन को विजेता बनाया।

नर और नारायण की कहानी – अर्जुन और श्रीकृष्ण का पूर्व जन्म का रहस्य

श्रीकृष्ण और अर्जुन का रिश्ता सिर्फ महाभारत तक सीमित नहीं था, बल्कि इसका संबंध उनके पूर्वजन्म से भी जुड़ा हुआ है। पौराणिक कथाओं के अनुसार, ये दोनों नर और नारायण के रूप में जन्मे थे। वे बद्रीनाथ में घोर तपस्या करते थे और भगवान विष्णु के अंश माने जाते थे। उनका उद्देश्य था – धर्म की रक्षा करना और पापियों का नाश करना। उस समय एक शक्तिशाली असुर था – दंबोद्भव, जिसने सूर्यदेव की कठोर तपस्या करके 1000 कवचों का वरदान प्राप्त किया था। शर्त ये थी कि जो भी उसका एक कवच तोड़ेगा, उसे 1000 वर्षों तक तप करना होगा और वह मृत्यु को प्राप्त हो जाएगा। इस वरदान से वह अहंकारी बन गया और देवताओं को परेशान करने लगा।

नर और नारायण ने उस असुर का सामना किया और बारी-बारी से तप कर 999 कवच तोड़े। हर कवच के बाद एक ने तप किया और दूसरे ने युद्ध किया। लेकिन जब केवल एक अंतिम कवच बचा, तब दंबोद्भव भयभीत होकर सूर्यदेव की शरण में चला गया। चूंकि भगवान वचन के पक्के होते हैं, सूर्यदेव ने उसे शरण दी। बाद में वही असुर कर्ण के रूप में जन्मा, और उसी के वध के लिए अर्जुन को जन्म लेना पड़ा। श्रीकृष्ण को यह बात ज्ञात थी, इसलिए उन्होंने कहा कि यह युद्ध अर्जुन का है – वे सिर्फ मार्गदर्शक बनेंगे, योद्धा नहीं।

इसलिए श्रीकृष्ण ने कहा – 'यह युद्ध तुम्हारा है अर्जुन'

जब दंभ से भरे दंबोद्भव राक्षस ने हजार वर्षों तक तप कर कई वरदान पाए, तो उसने अपने शरीर को हजार कवचों से सुरक्षित कर लिया। देवताओं ने उसका अंत करने के लिए योजना बनाई और उसे पृथ्वी पर कर्ण के रूप में जन्म लेना पड़ा। लेकिन उसके आखिरी कवच को तोड़ने वाला कोई ऐसा होना चाहिए था, जिसने खुद भी हजार साल तक तपस्या की हो। नर यानी अर्जुन ने वही तपस्या की थी, इसीलिए केवल अर्जुन ही कर्ण का वध कर सकता था।

श्रीकृष्ण को यह बात भली-भांति पता थी। इसलिए उन्होंने युद्ध से पहले अर्जुन से साफ कहा – 'यह युद्ध तुम्हारा है अर्जुन, मैं केवल तुम्हारा मार्गदर्शन करूंगा।' उन्होंने खुद शस्त्र नहीं उठाए, बल्कि अर्जुन के सारथी बने और पूरी रणनीति का संचालन किया। इसीलिए महाभारत के युद्ध में श्रीकृष्ण की भूमिका मार्गदर्शक की थी, सेनापति या योद्धा की नहीं।

एक बार श्रीकृष्ण ने रथ का पहिया क्यों उठाया?

महाभारत युद्ध में भगवान श्रीकृष्ण ने साफ कहा था कि वे युद्ध में शस्त्र नहीं उठाएंगे। लेकिन एक समय ऐसा आया जब भीष्म पितामह बहुत ही प्रबल हो गए और अर्जुन पर भारी पड़ने लगे। यह देख श्रीकृष्ण क्रोधित हो गए और रथ से कूद पड़े। उन्होंने जमीन पर पड़ा रथ का पहिया उठा लिया और भीष्म की ओर बढ़ने लगे। यह देखकर अर्जुन घबरा गया और तुरंत श्रीकृष्ण के चरण पकड़ लिए। उसने उन्हें याद दिलाया कि उन्होंने शस्त्र न उठाने का वचन दिया है।

यह दृश्य बहुत भावुक था। श्रीकृष्ण ने अर्जुन की बात मानी और रथ का पहिया छोड़ दिया। यह घटना दर्शाती है कि भगवान के लिए भी वचन और धर्म सबसे ऊपर होते हैं। वह खुद भी अपने वचनों का पालन करते हैं और हमें भी यही सिखाते हैं – चाहे परिस्थिति कैसी भी हो, अगर आपने कोई वादा किया है तो उसे निभाना चाहिए।

जीवन का सार: जब युद्ध तुम्हारा है, तो लड़ना भी तुम्हें ही होगा

महाभारत का युद्ध सिर्फ पांडवों और कौरवों के बीच नहीं था, बल्कि यह हर इंसान के भीतर चल रहे अच्छे और बुरे के संघर्ष का प्रतीक भी है। इस युद्ध में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन का रथ जरूर चलाया, लेकिन उन्होंने कभी शस्त्र नहीं उठाया। उन्होंने अर्जुन को यही सिखाया कि हर व्यक्ति को अपने जीवन की लड़ाइयों का सामना खुद करना होता है। ईश्वर साथ होते हैं, लेकिन वे केवल मार्गदर्शन करते हैं – लड़ाई तो हमें ही लड़नी पड़ती है।

श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा था – 'यह युद्ध तुम्हारा है। मैं केवल मार्गदर्शक हूं, सारथी हूं, लेकिन युद्ध लड़ना तुम्हें ही होगा।' यह वाक्य केवल अर्जुन के लिए नहीं था, बल्कि पूरी मानवता के लिए एक गहरा संदेश है। जब तक हम अपने कर्म और जिम्मेदारियों से नहीं भागते, तब तक ईश्वर हमारे साथ होते हैं। लेकिन अगर हम डरकर या भ्रम में आकर लड़ाई से पीछे हटते हैं, तो भगवान भी हमारी मदद नहीं कर सकते।

जीवन में कई बार ऐसे मौके आते हैं जब हमें लगता है कि रास्ता मुश्किल है, चुनौतियां बड़ी हैं, और कोई सहारा नहीं है। ऐसे समय में हमें याद रखना चाहिए कि सत्य और धर्म के मार्ग पर चलने वाला कभी अकेला नहीं होता। अगर हम निष्ठा और साहस के साथ आगे बढ़ेंगे, तो भगवान स्वयं हमारे सारथी बन जाएंगे, जैसे उन्होंने अर्जुन के लिए रथ चलाया था। यही आत्मबल, यही विश्वास और यही कर्मशीलता जीवन की सबसे बड़ी सीख है।

महाभारत आज भी प्रासंगिक क्यों है?

महाभारत केवल एक पुरानी कहानी या ऐतिहासिक ग्रंथ नहीं है, बल्कि यह एक ऐसा दर्पण है जिसमें आज का समाज भी साफ दिखाई देता है। इसमें जो पात्र हैं – जैसे अर्जुन, द्रौपदी, कर्ण, भीष्म, और श्रीकृष्ण – वे सभी हमारे आसपास के लोगों जैसे ही हैं। उनके भीतर भी भावनाएं, संघर्ष, मोह, और धर्म-अधर्म की उलझनें थीं। अर्जुन का युद्ध से पहले डर जाना, श्रीकृष्ण का उसे मार्गदर्शन देना – यह सब हमें आज के जीवन में सही निर्णय लेने की प्रेरणा देता है।

भगवद् गीता, जो महाभारत का ही हिस्सा है, आज भी करोड़ों लोगों को जीने का रास्ता दिखाती है। उसमें कहा गया है – 'कर्म किए जा, फल की चिंता मत कर।' यह बात हमें सिखाती है कि अपने काम को ईमानदारी से करते रहें, उसका फल समय पर मिलेगा। एक और महत्वपूर्ण संदेश है – 'अधर्म के खिलाफ खड़े हो, सत्य के लिए लड़ो।' यह आज के समय में भी उतना ही जरूरी है, जब अन्याय और भ्रष्टाचार जैसे हालात सामने आते हैं।

श्रीकृष्ण ने जो गीता में कहा, वह यही है कि ईश्वर हमेशा धर्म के साथ होते हैं। जब हम सच्चाई, अच्छाई और न्याय के लिए खड़े होते हैं, तब भगवान हमारे साथ होते हैं। इसलिए महाभारत सिर्फ इतिहास नहीं, बल्कि जीवन जीने की एक गहरी सीख है, जो आज भी उतनी ही सटीक और ज़रूरी है।

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