कबीरदास जयंती भारत के महान संत कबीरदास की जन्म-तिथि के उपलक्ष्य में मनाई जाती है। संत कबीरदास ने अपने दोहों, साखियों और उपदेशों के माध्यम से समाज में फैली कुरीतियों, अंधविश्वास और धार्मिक आडंबरों को चुनौती दी। उनका जीवन और शिक्षाएँ आज भी प्रासंगिक हैं। इस लेख में हम कबीरदास के जीवन, उनके दर्शन और समाज पर उनके प्रभाव के बारे में विस्तार से चर्चा करेंगे।
कबीरदास का जीवन परिचय
कबीरदास का जन्म 15वीं शताब्दी में हुआ माना जाता है। उनके जन्म के बारे में अनेक कथाएँ प्रचलित हैं। एक मान्यता के अनुसार, वे एक विधवा ब्राह्मणी के पुत्र थे, जिन्हें लोक-लाज के डर से लहरतारा तालाब (वर्तमान वाराणसी) के किनारे छोड़ दिया गया था। वहाँ से नीरु नामक एक मुस्लिम जुलाहे और उनकी पत्नी नीमा ने उन्हें पाला।
कबीरदास ने औपचारिक शिक्षा प्राप्त नहीं की, लेकिन उनकी बुद्धिमत्ता और आध्यात्मिक ज्ञान असाधारण था। उन्होंने स्वयं को "अनपढ़" कहा, फिर भी उनके दोहे और भजन ज्ञान का भंडार हैं।
गुरु-शिष्य परंपरा
कबीरदास, संत रामानंद के शिष्य थे। कहा जाता है कि उन्होंने रामानंद को गुरु बनाने के लिए एक चाल चली। रामानंद प्रतिदिन सुबह गंगा स्नान के लिए जाते थे। कबीर ने उनके रास्ते में पड़ने वाली सीढ़ियों पर लेटकर उन्हें "राम-राम" कहने के लिए विवश किया। रामानंद के मुख से निकले "राम-राम" को कबीर ने दीक्षा-मंत्र मान लिया और उनके शिष्य बन गए।
कबीरदास का दर्शन और शिक्षाएँ
एकेश्वरवाद और भक्ति भावना
कबीरदास ने ईश्वर के एक रूप की पूजा पर जोर दिया। उन्होंने हिंदू-मुस्लिम एकता का संदेश दिया और कहा:
"दुवै जग बीचारिया, हिन्दू कहै मोहि राम पियारा।
तुर्क कहै रहमाना, आपस में दोउ लड़ी-लड़ी मुए, मरम न जाना।"
अर्थात, हिंदू और मुसलमान दोनों ईश्वर को अलग-अलग नामों से पुकारते हैं, लेकिन वास्तव में वह एक ही है।
सामाजिक समानता
कबीर ने जाति-पाति और ऊँच-नीच के भेदभाव का विरोध किया। उनका मानना था कि ईश्वर की दृष्टि में सभी समान हैं:
"जाति-पाँति पूछे नहिं कोई, हरि को भजे सो हरि का होई।"
उन्होंने समाज के निचले तबके के लोगों को भी आत्मसम्मान के साथ जीने की प्रेरणा दी।
धार्मिक आडंबरों का खंडन
कबीर ने मूर्ति पूजा, तीर्थयात्रा, व्रत-उपवास जैसे बाह्य आडंबरों को निरर्थक बताया। उनके अनुसार, सच्ची भक्ति मन की शुद्धता में है:
"पाहन पूजे हरि मिले, तो मैं पूजूँ पहार।
या ते तो चाकी भली, पीस खाय संसार।"
अर्थात, यदि पत्थर पूजने से ईश्वर मिलते, तो मैं पहाड़ की पूजा करता। लेकिन ऐसा नहीं है, चक्की (जो अनाज पीसकर लोगों का पेट भरती है) उससे बेहतर है।
जीवन का सत्य
कबीर ने मोक्ष और मृत्यु के बारे में गहन चिंतन किया। उन्होंने कहा कि मनुष्य को अपने कर्मों पर ध्यान देना चाहिए:
"काल करे सो आज कर, आज करे सो अब।
पल में परलय होएगी, बहुरि करेगा कब।"
यानी, जो कल करना है, वह आज करो, और जो आज करना है, वह अभी करो, क्योंकि समय बहुत अनिश्चित है।
कबीरदास की रचनाएँ
कबीरदास ने अपने विचार साखी, सबद और रमैनी के रूप में व्यक्त किए। उनकी भाषा सरल और प्रभावशाली थी, जिसमें अवधी, ब्रज और खड़ी बोली का मिश्रण था। उनकी प्रमुख रचनाएँ हैं:
बीजक – इसमें कबीर के दोहे और साखियाँ संग्रहित हैं।
कबीर ग्रंथावली – इसमें उनके सभी दोहे और भजन शामिल हैं।
अनुराग सागर – यह कबीर की रहस्यवादी शिक्षाओं का संग्रह है।
समाज पर कबीरदास का प्रभाव
कबीरदास ने न केवल अपने समय बल्कि आज तक के समाज पर गहरा प्रभाव छोड़ा है। उनके विचारों ने भक्ति आंदोलन को गति दी और बाद के संतों जैसे नानक, रैदास और दादू दयाल को प्रेरित किया। उनकी शिक्षाएँ आज भी सामाजिक सद्भाव, सच्चाई और नैतिकता की प्रेरणा देती हैं।
कबीरदास जयंती का महत्व
कबीरदास जयंती हर साल ज्येष्ठ माह की पूर्णिमा को मनाई जाती है। इस दिन उनके अनुयायी उनके दोहों का पाठ करते हैं, सत्संग आयोजित करते हैं और समाज में एकता व भाईचारे का संदेश फैलाते हैं।
कबीरदास एक ऐसे संत थे, जिन्होंने बिना किसी लाग-लपेट के सच बोला। उनकी शिक्षाएँ आज भी प्रासंगिक हैं, खासकर जब समाज धर्म, जाति और संकीर्ण मानसिकता में बँटा हुआ है। कबीरदास जयंती के अवसर पर हमें उनके विचारों को आत्मसात करना चाहिए और एक बेहतर समाज बनाने की दिशा में काम करना चाहिए।
"बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय।
जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय।"