भारत और चीन के बीच व्यापारिक संबंधों को लेकर योजना आयोग के पूर्व उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया ने महत्वपूर्ण चेतावनी दी है। उन्होंने कहा कि भारत को चीन के साथ व्यापार करते समय बेहद सतर्क रहना चाहिए, क्योंकि इसमें आर्थिक अवसरों के साथ-साथ रणनीतिक जोखिम भी छिपे हुए हैं।
नई दिल्ली: भारत और चीन के व्यापारिक संबंध हमेशा से आर्थिक और रणनीतिक बहस का विषय रहे हैं। एक तरफ चीन वैश्विक उत्पादन का केंद्र है, तो दूसरी तरफ भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ी चिंताएं भी इससे जुड़ी हुई हैं। इस बीच भारत के मशहूर अर्थशास्त्री और योजना आयोग के पूर्व उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया ने भारत को चीन के साथ व्यापार में संतुलन बनाए रखने की सख्त सलाह दी है। उन्होंने यह स्पष्ट किया है कि पूर्ण प्रतिबंध समाधान नहीं है, बल्कि समझदारी से बनाई गई रणनीति ही सही रास्ता है।
क्यों जरूरी है सतर्क व्यापार नीति?
मोंटेक सिंह अहलूवालिया ने कहा है कि भारत को चीन के साथ व्यापारिक संबंधों को एक रणनीतिक नजरिए से देखना चाहिए। चीन आज दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है और उससे पूरी तरह दूरी बनाना संभव नहीं है। लेकिन इससे जुड़ी तीन प्रमुख चिंताएं हैं, जिन्हें नजरअंदाज नहीं किया जा सकता:
- अनुचित व्यापार प्रथाएं – चीन द्वारा अपने उत्पादों पर दी जाने वाली सब्सिडी भारतीय उत्पादकों को असंतुलित प्रतिस्पर्धा में धकेलती है। इससे भारतीय उद्योगों को नुकसान होता है।
- रणनीतिक निर्भरता – कुछ महत्वपूर्ण क्षेत्रों जैसे फार्मास्युटिकल्स (विशेषकर API - एक्टिव फार्मास्युटिकल इंग्रेडिएंट्स) में भारत की चीन पर अत्यधिक निर्भरता चिंताजनक है।
- साइबर सुरक्षा खतरे – कई उत्पादों में एम्बेडेड कमजोरियां होती हैं, जो संवेदनशील क्षेत्रों में साइबर अटैक के दरवाज़े खोल सकती हैं।
इन सभी समस्याओं के समाधान के लिए अहलूवालिया ने घरेलू क्षमताओं के विकास और सप्लाई स्रोतों में विविधता लाने पर बल दिया है। उन्होंने कहा कि चीन से व्यापार पूरी तरह खत्म करने की नहीं, बल्कि उसे संतुलित और सुरक्षित बनाने की जरूरत है।
रणनीतिक निर्भरता: भारत की फार्मेसी पर खतरा?
अहलूवालिया ने फार्मास्युटिकल सेक्टर का उदाहरण देते हुए बताया कि भारत खुद को "दुनिया की फार्मेसी" कहता है, लेकिन सच्चाई यह है कि हम अपने दवाओं के निर्माण में उपयोग होने वाले API का बड़ा हिस्सा चीन से आयात करते हैं। यह स्थिति भारत को रणनीतिक रूप से कमजोर बनाती है। उन्होंने कहा कि जब किसी एक देश पर इतने महत्वपूर्ण क्षेत्र में निर्भरता हो, तो वह कभी भी उस निर्भरता का उपयोग रणनीतिक दबाव के रूप में कर सकता है। इसीलिए उन्होंने PLI (प्रोडक्शन लिंक्ड इंसेंटिव) जैसी योजनाओं के जरिये भारत को घरेलू उत्पादन क्षमता बढ़ाने की सलाह दी है।
सिर्फ दवाओं की बात नहीं है, बल्कि रेयर अर्थ मिनरल्स, बैटरी, ऊर्जा उपकरण, इलेक्ट्रॉनिक्स जैसे क्षेत्रों में भी भारत की चीन पर निर्भरता बढ़ती जा रही है। यह भविष्य के लिए खतरनाक संकेत हो सकते हैं।
क्या हर चीनी उत्पाद से खतरा है?
एक अहम बात जो अहलूवालिया ने कही, वह यह थी कि हर चीनी उत्पाद भारत की सुरक्षा के लिए खतरा नहीं है। उदाहरण के तौर पर उन्होंने सोलर सेल्स का जिक्र किया। उन्होंने बताया कि चीन ने इतनी बड़ी मात्रा में सोलर चिप्स का उत्पादन किया है कि उसकी वजह से अंतरराष्ट्रीय बाजार में उनकी कीमतें गिर गई हैं। अगर भारत इन्हें आयात करता है, तो वह अपनी सौर ऊर्जा उत्पादन क्षमता को तेजी से बढ़ा सकता है।
यह स्थिति भारत के लिए लाभदायक हो सकती है, क्योंकि इससे सस्ती और स्वच्छ ऊर्जा प्राप्त होगी। इसलिए उन्होंने कहा कि कुछ मामलों में आयात समर्थन और सहयोग का रूप ले सकता है, न कि केवल खतरे का। हालांकि, उन्होंने इस बात पर भी जोर दिया कि जब मामला महत्वपूर्ण तकनीकी प्रणालियों का हो – जैसे रक्षा, संचार, या बिजली वितरण – तो वहाँ सिर्फ भरोसेमंद स्रोतों से ही आयात किया जाना चाहिए।
क्या भारत पूरी तरह चीन को छोड़ सकता है?
भारत के सामने यह सबसे बड़ा सवाल है कि क्या वह चीन के बिना अपनी आर्थिक तरक्की और उत्पादन श्रृंखलाओं को बनाए रख सकता है? अहलूवालिया का जवाब है – नहीं पूरी तरह नहीं, लेकिन भारत को विकल्प तैयार करने की जरूरत है। उन्होंने स्पष्ट किया कि भारत को उन क्षेत्रों में निवेश करना चाहिए जहां वह चीन की जगह खुद को स्थापित कर सके, चाहे वह घरेलू निर्माण हो या वैश्विक साझेदारों से सहयोग।
भारत को यह भी ध्यान रखना होगा कि पूरी तरह से आत्मनिर्भरता की कोशिश में उत्पादन लागत और उपभोक्ता कीमतें न बढ़ जाएं। भारत एक विकासशील देश है, जहां सस्ती सेवाएं और उत्पाद आम आदमी की पहुंच में होना जरूरी है।