एक पुरानी कहावत है, 'सपने देखोगे नहीं, तो पूरे कैसे होंगे।' इस विचार के साथ ही वेब सीरीज ‘लफंगे’ की कहानी शुरू होती है, लेकिन यह सिर्फ सपनों के पूरे होने की बात नहीं करती, बल्कि अधूरे सपनों से मिलने वाले अनुभवों और उनकी गहराई को भी उजागर करती है। इस सोच को सजीव करती है हाल ही में रिलीज़ हुई वेब सीरीज़ ‘लफंगे’, जो एक साथ कई भावनात्मक और सामाजिक परतों को छूती है।
निर्देशक प्रेम मिस्त्री और अभिषेक यादव द्वारा गढ़ी गई यह सीरीज़ दोस्ती, महत्वाकांक्षा, बेरोजगारी और मध्यम वर्गीय संघर्षों को बेहद ईमानदारी और यथार्थ के साथ दर्शाती है।
कहानी जो हर छोटे शहर के युवा से जुड़ती है
‘लफंगे’ की कहानी तीन बचपन के दोस्तों चैतन्य (अनुद सिंह ढाका), कमलेश (हर्ष बेनीवाल) और रोहन (गगन अरोड़ा) के इर्द-गिर्द घूमती है, जो नोएडा के निचले मध्यमवर्गीय समाज से ताल्लुक रखते हैं। ये तीनों अपने-अपने सपनों के पीछे भाग रहे हैं, पर उनके रास्ते में आर्थिक तंगी, पारिवारिक जिम्मेदारियां और सामाजिक अपेक्षाएं दीवार बनकर खड़ी हैं।
चैतन्य पढ़ाई में होशियार है और सरकारी नौकरी पाना चाहता है, ताकि अपने परिवार के सिर से कर्ज उतार सके। हर भर्ती परीक्षा देता है लेकिन भर्ती प्रक्रिया में हो रही धांधलियां और बार-बार की असफलता उसे एक जोखिम भरे रास्ते की ओर ले जाती है — सट्टेबाजी।
कमलेश, जो एक्टर बनने का सपना देखता है, अपने पिता की किराने की दुकान से पीछा छुड़ाकर मायानगरी की ओर उड़ना चाहता है। मगर जब उसे अपने पिता की संघर्षभरी ज़िंदगी की हकीकत पता चलती है, तो उसकी सोच में गहराई आ जाती है। रोहन, जो अपने कॉलेज की प्रेमिका इशिता (बरखा सिंह) के साथ लिव-इन में रहना चाहता है, एक सेल्स जॉब पकड़ता है। मगर इशिता की अधिक कमाई और उनके बीच की भावनात्मक असंतुलन, इस रिश्ते को अस्थिर बना देता है।
यथार्थ के करीब है ‘लफंगे’
‘लफंगे’ वेब सीरीज़ की सबसे बड़ी ताकत इसकी प्रामाणिकता है। यह उन मुद्दों को उठाती है जो आज के युवाओं की जिंदगी में आम हैं:
- सरकारी नौकरियों की अस्थिरता
- बेरोजगारी की बढ़ती मार
- छोटे शहरों के युवा और उनकी बड़ी महत्वाकांक्षाएं
- परिवार की आर्थिक स्थितियों के बीच पनपते सपने
- रिश्तों में आर्थिक असमानता का असर
प्रदर्शन और लेखन
अनुद सिंह ढाका चैतन्य के किरदार में सधे हुए हैं। उनके चेहरे पर संकोच, हताशा और बेचैनी का मिश्रण कहानी को धार देता है। हर्ष बेनीवाल, जिनकी कॉमिक टाइमिंग इंटरनेट पर पहले से मशहूर है, यहां गंभीर और भावुक दृश्यों में भी प्रभाव छोड़ते हैं। गगन अरोड़ा ने भी रोहन के किरदार को यथार्थ के करीब रखा है, खासकर जब वह अपने आत्मसम्मान और इशिता के बीच झूलता दिखता है। बरखा सिंह और सलोनी गौर जैसे कलाकारों ने भी सहायक भूमिकाओं में अपनी छाप छोड़ी है।
निर्देशन और तकनीकी पक्ष
प्रेम मिस्त्री और अभिषेक यादव का निर्देशन संवेदनशील और गहराई लिए हुए है। उन्होंने नाटकीयता से दूर रहकर कहानी को वास्तविक ज़िंदगी के लहजे में पिरोया है। सिनेमैटोग्राफी में छोटे शहरों की गलियां, किराए के मकान, सरकारी ऑफिस और संकरी सोच वाली सामाजिक परतें बखूबी उभर कर आती हैं।संगीत और बैकग्राउंड स्कोर कहानी के मूड से मेल खाता है। न कोई दिखावटी गाना और न ही ज़बरदस्ती का रोमांस — सब कुछ कहानी के हिसाब से संतुलित है।
हालांकि सीरीज़ काफी संतुलित है, पर कुछ जगहों पर इसकी गति थोड़ी धीमी हो जाती है। खासकर मिडिल एपिसोड्स में, जहां चरित्रों का अंतर्द्वंद्व खिंचता सा लगता है। साथ ही, कुछ दर्शक इसके अंत को ‘ओपन एंडेड’ मान सकते हैं, जो सबके लिए संतोषजनक नहीं हो सकता।