‘काशी’ यानी वाराणसी को ‘सत्य की नगरी’ कहा जाता है और यहाँ की संस्कृति, धर्म और परंपराएं महादेव की उपस्थिति से गहराई से जुड़ी हुई हैं। महादेव को यहाँ हर जगह देखा और महसूस किया जाता है चाहे वह अभिवादन हो, प्रणाम हो या जीवन-मृत्यु का चक्र।
Bhool Chuk Maaf Review: फिल्म ‘भूल चूक माफ’ को देखकर साफ हो गया कि यह फिल्म थिएटर के बड़े पर्दे के लिए नहीं बनी है। करण शर्मा निर्देशित यह फिल्म, जो उत्तर प्रदेश के एक खास सामाजिक परिवेश में सेट की गई है, अपने कथानक और प्रस्तुति के लिहाज से ओटीटी प्लेटफॉर्म के लिए अधिक उपयुक्त साबित होती। जहां यह फिल्म थिएटर में रिलीज हुई, वहां दर्शकों की अपेक्षाओं पर खरी उतरने में नाकाम रही।
कहानी का मिजाज: एक समय के फंदे में फंसा युवक
फिल्म की कहानी उत्तर प्रदेश के दो ब्राह्मण परिवारों के इर्द-गिर्द घूमती है, जहां सरकारी नौकरी का सपना और भ्रष्टाचार की हकीकत खुलकर सामने आती है। राजकुमार राव निभाए गए मुख्य किरदार के समय के फंदे में फंसे होने का ट्विस्ट ‘ग्राउंडहॉग डे’ और ‘नेकेड’ जैसी फिल्मों की याद दिलाता है। फिल्म में राजकुमार राव का किरदार शिवजी से की गई मन्नत के कारण एक ही दिन में फंसा रहता है, जो उसकी शादी के ठीक पहले का दिन होता है।
इस बीच कहानी में सरकारी नौकरी पाने के लिए रिश्वतखोरी और सामाजिक दबाव की झलक मिलती है। यह विषय आज के युवाओं की पीड़ा को दर्शाता है, लेकिन इस संवेदनशील विषय को निर्देशक न तो प्रभावशाली तरीके से पकड़ पाए और न ही कहानी में किसी नया रंग भर पाए।
फिल्म के संवाद कई बार असामान्य और गलतफहमी पैदा करने वाले लगते हैं। ‘बकैती’ शब्द का गलत इस्तेमाल और इलाके की भाषा की तड़क-भड़क दर्शकों को असहज कर देती है। कहानी की पटकथा कमजोर और बार-बार दोहराई गई सी लगती है, जिससे फिल्म का रोमांच जल्दी खत्म हो जाता है।
अभिनय की बात करें तो
राजकुमार राव की जबरदस्ती फिटिंग और वामिका गब्बी का अधूरा किरदार फिल्म की कमजोरी बन गया है। वामिका की भूमिका में न तो कैमरा उनका पूरा न्याय कर पाया, न ही निर्देशक ने उनकी छवि को सशक्त रूप से पेश किया। वहीं, सीमा पाहवा का अभिनय फिल्म का उज्ज्वल पक्ष है, जो हर बार कैमरे पर आते ही दर्शकों का ध्यान खींचती हैं। जाकिर हुसैन और रघुवीर यादव जैसे दिग्गज कलाकारों की उपस्थिति फिल्म में वजनी होने के बावजूद कहानी के कमजोर ढांचे के आगे फीकी पड़ जाती है।
सुदीप चटर्जी द्वारा फिल्माई गई काशी की सुंदरता अधिकतर ड्रोन शॉट्स तक सीमित रह गई है। वास्तविक काशी की गलियां और माहौल मुंबई के सेट्स में बने रहने के कारण कहीं खो सा गए हैं। मनीष प्रधान की एडिटिंग ने कुछ हद तक फिल्म को गति दी, लेकिन कमजोर कहानी को एडिटिंग से पूरी तरह बचाया नहीं जा सका।
संगीत और गानों की बात करें तो तनिष्क बागची के संगीत और इरशाद कामिल के गीत कमजोर कथानक को सुधारने में असमर्थ रहे। गाने बीच-बीच में दर्शकों का ध्यान भटकाते हैं और फिल्म के प्रवाह को तोड़ते हैं।
फिल्म की असली जरूरत: ओटीटी रिलीज
‘भूल चूक माफ’ जैसी फिल्में आज के दौर में ओटीटी प्लेटफॉर्म पर बेहतर काम करती हैं। छोटे पर्दे पर यह फिल्म दर्शकों को टुकड़ों में देखने को मिलती, जिससे उनकी रुचि बनी रहती। बड़े पर्दे पर दो घंटे तक बैठना और कमजोर पटकथा झेलना चुनौती बन जाता है। अगर यह फिल्म नेटफ्लिक्स, अमेज़न प्राइम या किसी अन्य ओटीटी सेवा पर रिलीज होती, तो दर्शक इसे आराम से अपने समय अनुसार देख पाते। साथ ही, ऐसे विषयों को टीवी या मोबाइल स्क्रीन पर देखना अधिक सहज और प्रभावी होता है।
सरकारी नौकरी की जद्दोजहद और सामाजिक कड़वाहट को दर्शाने वाली यह फिल्म सही तरीके से अपनी बात नहीं कह पाई। कमजोर पटकथा, अनाड़ी संवाद और अधूरा किरदार फिल्म के कमजोर पक्ष हैं। वहीं तकनीकी पक्ष भी अपेक्षा के अनुरूप नहीं रहा। ‘भूल चूक माफ’ एक अच्छी कोशिश जरूर है, लेकिन थिएटर के लिए नहीं, बल्कि ओटीटी प्लेटफॉर्म के लिए बेहतर साबित होती। यदि आप सामाजिक मुद्दों पर आधारित फिल्में देखना पसंद करते हैं और आपको राजकुमार राव की एक्टिंग पसंद है, तो आप इसे ओटीटी पर देखकर जरूर विचार कर सकते हैं।
अगर आप अपने वीकेंड पर भारी टिकट खर्च कर इसे थिएटर में देखने जा रहे हैं, तो शायद यह आपकी उम्मीदों पर खरा न उतरे। बेहतर होगा कि आप इसे ओटीटी पर रिलीज होने तक इंतजार करें, तब जाकर इसकी कहानी और प्रस्तुति का सही आनंद लिया जा सकेगा।