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विक्रम-बेताल की कथा: सच्ची बहादुरी का इनाम – सत्वशील की कथा

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राजा विक्रमादित्य अपने वचन के पक्के थे। अंधेरी रात, सन्नाटे से भरे जंगल में वे फिर एक बार पीपल के पेड़ पर लटके बेताल को अपने कंधे पर उठाए बढ़ रहे थे। तलवार उनके हाथ में थी, और मन पूरी तरह सतर्क।
बेताल ने हँसते हुए कहा,
“राजन, जब तक तुम मेरे प्रश्नों का उत्तर देते रहोगे, मैं उड़ता रहूँगा। फिर भी, सुनो एक नई कहानी। लेकिन शर्त वही है—यदि अंत में उत्तर दोगे, तो मैं फिर उड़ जाऊँगा।”
विक्रम ने मौन स्वीकृति दी और बेताल ने कथा आरंभ की।

ताम्रलिपि का न्यायप्रिय राजा और सत्वशील का सपना

बहुत समय पहले, समुद्र किनारे ताम्रलिपि नामक एक सुंदर नगर बसा था। उसके राजा चन्द्रसेन अपनी न्यायप्रियता, दूरदृष्टि और बहादुरी के लिए विख्यात थे। नगर भीतर सुख-समृद्धि थी, परंतु नगर की सीमा के बाहर बेरोजगारी और संसाधनों की कमी जैसी समस्याएँ बढ़ रही थीं। राजा चन्द्रसेन चिंतित रहते थे और योग्य व्यक्तियों की सहायता से इनका हल खोजते थे।
इसी नगर में सत्वशील नाम का एक नवयुवक रहता था। साहसी, निष्ठावान और सेवाभावी। बार-बार वह राजदरबार में नौकरी पाने का प्रयास करता, पर हर बार दरबानों द्वारा लौटा दिया जाता।

प्यास, फल और एक सुनहरा अवसर

एक दिन राजा चन्द्रसेन शिकार पर निकले। तेज धूप, सूखा गला—लेकिन जल कहीं नजर न आया। तभी उन्हें एक युवक दिखा, जो मार्ग के किनारे खड़ा था—सत्वशील ही था। उसने तुरंत राजा को पानी और कुछ फल अर्पित किए।
राजा प्रसन्न होकर बोले,
“युवक, माँग क्या चाहता है?”
सत्वशील ने बिना संकोच उत्तर दिया,
“राजन, मैं आपके दरबार में सेवा करना चाहता हूँ, ताकि राज्य और प्रजा के हित में योगदान दे सकूँ।”
राजा उसकी स्पष्टता और सेवा भाव से प्रभावित हुए और उसे दरबार में स्थान दे दिया।

टापू की ओर पहला कदम

समय के साथ सत्वशील राजा का विश्वासपात्र बन गया। एक दिन चन्द्रसेन ने उससे कहा,
“हमारे नगर के बाहर बेरोजगारी बढ़ रही है। समुद्र के पास एक टापू है, जो हराभरा और समृद्ध प्रतीत होता है। वहाँ जाकर संभावनाओं की खोज आवश्यक है।”
सत्वशील ने यह दायित्व तुरंत स्वीकार किया। राजा ने उसे नाव, सहयोगी और आवश्यक सामग्री देकर टापू की ओर रवाना किया।

अज्ञात में छलांग: सत्वशील की असली परीक्षा

समुद्र यात्रा के दौरान सत्वशील ने लहरों में एक झंडा तैरता देखा। बिना देरी किए, उसने अपने साथियों को यथास्थान रोक कर स्वयं समुद्र में छलांग लगा दी। उसने नहीं सोचा कि यह छलांग जीवन का आखिरी भी हो सकती है।
होश में आने पर उसने खुद को उस टापू पर खड़ा पाया। चारों ओर हरियाली और मधुर संगीत। सामने एक सुंदर राजकुमारी अपनी सेविकाओं के साथ थी। सत्वशील ने आदरपूर्वक प्रणाम किया। राजकुमारी ने उसे आतिथ्य दिया, भोजन कराया और स्नान के लिए जलकुंड की ओर भेजा।
जैसे ही उसने जल में पाँव रखा, अगली ही पल वह ताम्रलिपि के महल में, राजा चन्द्रसेन के समक्ष खड़ा था। उसने यह पूरा रहस्य राजा को विस्तार से बताया। राजा आश्चर्यचकित रह गए।

विजय और सत्वशील का गौरव

राजा चन्द्रसेन ने स्वयं उस टापू की ओर प्रस्थान किया। छोटी सेना और विश्वास के साथ वे वहाँ पहुँचे। राजकुमारी और उसकी सेना ने उनका सामना किया। परन्तु चन्द्रसेन ने युद्ध नहीं, बल्कि संवाद का मार्ग चुना। राजकुमारी ने समझदारी दिखाते हुए ताम्रलिपि के अधीन रहने का निर्णय लिया।
विजय के पश्चात राजा चन्द्रसेन ने जनसभा में घोषणा की—
“इस विजय का श्रेय सत्वशील को है। उसी की निर्भीकता और सेवा भाव ने हमें इस संपदा तक पहुँचाया। अतः मैं उसे इस टापू का शासक नियुक्त करता हूँ और इसका विवाह राजकुमारी से कराता हूँ।”

बेताल का सवाल

इतना कहकर बेताल चुप हो गया। फिर बोला,
“राजन, बताओ—सच्चा बहादुर कौन है? राजा चन्द्रसेन, जिसने सोच-समझकर टापू पर अधिकार किया, या सत्वशील, जिसने अज्ञात में छलांग लगाई?”

विक्रम का न्यायपूर्ण उत्तर

राजा विक्रम ने तुरंत उत्तर दिया,
“सत्वशील सच्चा बहादुर है। राजा चन्द्रसेन ने जानकारी, सेना और साधनों के साथ सोचा-समझा निर्णय लिया। परंतु सत्वशील ने बिना किसी आश्वासन के, बिना यह जाने कि आगे क्या है—खतरा या मृत्यु—अपने प्राण जोखिम में डालकर कदम बढ़ाया। जो व्यक्ति अनिश्चितता और अंधकार में भी साहस दिखाता है, वही सच्चा वीर कहलाता है।”

सीख (Moral)

सच्ची बहादुरी वह होती है, जो अज्ञात और अनिश्चितता में भी निर्भय होकर निर्णय लेती है। जहाँ परिणाम स्पष्ट न हों, वहाँ साहस के साथ आगे बढ़ना ही असली वीरता है।
बेताल राजा विक्रम के उत्तर से प्रसन्न होते हुए हँस पड़ा और वचन के अनुसार फिर उड़कर पीपल के पेड़ पर जा लटका।

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