कहानी किसी ‘फूला बाई’ के ज़िक्र से शुरू नहीं होती, लेकिन उसका साया पूरे माहौल पर छाया रहता है। ये कोई एक शहर नहीं, एक बस्ती है। एक ऐसी जगह, जिसे सभी ने देखा है, पर कोई उसका नाम नहीं लेता। यह कहानी उन गलियों की है जहां ज़िंदगी के नियम कुछ और होते हैं, जहां रौशनी का मतलब होटल की बत्तियाँ हैं और रात की शुरुआत शाम के बाद होती है।
यहाँ पर पुराने, जर्जर मकान हैं। इनमें रहने वाले लोग अलग-अलग जगहों से आए हैं—कुछ पिछड़े, कुछ भटके, और कुछ बस जीने की ज़िद में आगे बढ़ते। लड़कियाँ हैं जो पेशे से वेश्या हैं, लड़के हैं जो दलाली करते हैं। दिन में बस्ती सोती है, रात में जागती है। शाम ढलते ही हर कोना ज़िंदा हो उठता है—गाड़ियों की रफ्तार, दलालों की आवाज़ें और होटलों की रौशनी सब कुछ बदल देती है।
तारे नहीं, सिर्फ़ अहसास चाहिए
इन होटलों के बाहर तारे तो नहीं टंगे होते, लेकिन लोग इन्हें ‘तारे वाली’ जगहें मानते हैं। कुछ होटलों पर तीन तारे होते हैं, कुछ पर पाँच, लेकिन ज़्यादातर होटलों पर कोई तारा नहीं होता। यहाँ आने वाले लोगों को तारे की परवाह नहीं होती, उन्हें बस एक अहसास चाहिए होता है — वो जो इन जगहों का माहौल देता है।
दुनिया भर से खासकर अरब देशों से लोग यहाँ आते हैं। उनका आना एक त्योहार जैसा होता है। दुकानदार, होटल वाले, वेश्याएं, दलाल, भिखारी, हिजड़े और नट सब उनकी राह देखते हैं। जब अरब अपने होटलों की बालकनी से नीचे देखते हैं, तो नाचते हिजड़े, करतब दिखाते बाज़ीगर और भीख मांगते भिखारी दिखते हैं। वे नोट फेंकते हैं, जिससे भीड़ टूट पड़ती है। पहले यहाँ लड़ाइयाँ होती थीं, अब सब ठीक है, लेकिन भीख माँगने की आदत अब भी नहीं गई है। जब नोट नहीं मिलते, तो लोग काग़ज़ के टुकड़ों पर भी झपट पड़ते हैं।
सब कुछ है बस रहने की जगह नहीं
इस शहर में सब कुछ है—दौलत, आराम, शोर, भीड़—but रहने के लिए एक छोटी सी जगह तक नहीं मिलती। लोग यहां सपनों के पीछे भागते हैं, लेकिन एक खाट या कोना मिल जाए तो वही सबसे बड़ी दौलत लगती है। ऐसे ही भीड़ भरे माहौल में लेखक की मुलाकात होती है फूला बाई से। उम्र होगी कोई 55-60 साल, रंग थोड़ा साँवला और बाल बेमेल खिज़ाब से रंगे हुए, जिनकी जड़ों से सफेदी साफ दिखती है। एक दिन अचानक वो मुस्कुरा देती है और फिर आंख मार देती है। लेखक के लिए यह बहुत अजीब था, क्योंकि इससे पहले किसी औरत ने उसके साथ ऐसा व्यवहार नहीं किया था।
अब लेखक उसे देखकर बचना चाहता है, लेकिन फूला बार-बार सामने आ जाती है। कभी थकी हुई, कभी थोड़ी सज-धज में, और हमेशा मुस्कुराती हुई। उसकी यह मौजूदगी लेखक को असहज करने लगती है। वो समझ नहीं पाता कि फूला बाई क्या चाहती है या उसके मन में क्या चल रहा है। धीरे-धीरे उसकी हरकतें लेखक को परेशान करने लगती हैं, और वो सोचने लगता है—क्या एक मुस्कान भी कभी इतनी भारी लग सकती है?
फूला बाई — जो सिर्फ़ दिखती है, पर दिखती रहना चाहती है
समंदर के किनारे की रौनक, गांधी जी की मूर्ति के पास बैठे प्रेमी जोड़े और बस्ती की रोज़ की भागदौड़—ये सब अब लेखक को सुकून नहीं देते। पहले जहाँ लहरों की आवाज़ उसे शांति देती थी, अब वही आवाज़ भी अधूरी लगने लगी है। अब उसके मन में बार-बार फूला बाई का चेहरा उभरता है। वो औरत जो हर रोज़ उसके सामने आती थी, मुस्कराती थी, और अब उसकी याद में कहीं बैठ गई है। लेखक की बेचैनी दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही है। अब उसे समझ नहीं आता कि वो क्या महसूस कर रहा है और क्यों।
एक दिन लेखक देखता है कि फूला बाई किसी फ्लैट में जाती है, शायद किसी ने चाय या सिगरेट के लिए बुलाया है। फिर बाहर आकर बीड़ी पीती है और दोबारा बुलावा आते ही फिर भाग जाती है। ये सब देखकर लेखक के मन में कई सवाल उठते हैं। क्या वो सिर्फ़ कामवाली है या कुछ और भी? क्या लोग उसका इस्तेमाल कर रहे हैं? और सबसे बड़ा सवाल—लेखक खुद कहाँ खड़ा है? क्या उसे भी इस भीड़ में एक हिस्सा बन जाना चाहिए? क्या वो भी दलाल बन जाए? उसे समझ नहीं आता कि उसकी असली जगह क्या है और इस बस्ती में उसका क्या मकसद है।
एक रात जो हमेशा याद रह गई
एक रात लेखक देर से घर लौट रहा था, लेकिन आखिरी बस जा चुकी थी। उसे पैदल ही उस कोने तक जाना पड़ा जहाँ उसकी खाट लगी थी। जैसे ही वह पहुंचा, पता चला कि उसकी खाट की चाबी खो गई है। वह आसपास इधर-उधर भटकने लगा, लेकिन कहीं कोई मदद नहीं मिली। तभी अचानक अँधेरे में फूला बाई सामने आ गई। उसकी सूरत कुछ अलग दिख रही थी—चेहरे पर ज्यादा पाउडर, झुर्रियों पर लिपस्टिक की मोटी परत, सस्ती साड़ी पहने, और मुरझाए हुए गजरे से उसका रूप बदला सा लग रहा था।
फूला बाई ने उसे देखकर पूछा, 'क्या हो गया? इतना चक्कर क्यों लगा रहे हो?' लेखक ने सच बता दिया कि चाबी खो गई है, इसलिए वह फंसा हुआ है। फूला बिना कुछ कहे अपने चाबी के गुच्छे से ताला खोलने लगी। उसने बिना किसी हिचकिचाहट के मदद की। फिर अचानक वह कमरे में आ गई, और लेखक के दिल में अजीब सी बेचैनी सी उठ गई। वह चुपचाप बैठा रहा, लेकिन उसकी नज़रें फूला बाई के चेहरे पर टिक गईं।
लेखक ने देखा कि फूला का चेहरा अब भी उसी पाउडर और लाली से भरा था, पर बालों की सफेदी और उसकी थकी हुई आंखें उसे गहरे दुख की याद दिला रही थीं। उसे घिन महसूस नहीं हुई, बल्कि एक तरह का दर्द उसके दिल को छू गया। वह समझ गया कि फूला बाई भी उस भीड़ में अकेली और टूटती हुई थी, जिसे कोई समझने वाला नहीं था। उस रात की यह मुलाकात लेखक के दिल में गहरे निशान छोड़ गई, जो वह कभी भूल नहीं पाया।
जब दिल ने अपना राज़ खोला
फूला धीरे से कहने लगी, 'मैं रोज़ तुम्हें देखती हूँ... आते-जाते।' उसकी आवाज़ में एक सच्चाई और मासूमियत थी। फिर वह बोलती है, 'तुम मुझे अच्छे लगते हो।' लेखक कुछ नहीं कह पाया, बस चुप हो गया। फूला ने हिम्मत जुटाकर आगे कहा, 'शायद तुम सोचते हो कि मैं बूढ़ी हूँ। लेकिन मैं सच बोलती हूँ, मेरी उम्र इतनी भी ज्यादा नहीं।'
लेखक थोड़ा घबरा गया और धीरे से बोला, 'तुम मुझे ग़लत समझ रही हो। मैं ऐसा इंसान नहीं हूँ। मैं तुम्हें बहुत अच्छा समझता हूँ, लेकिन...' पर फूला ने बीच में ही बोलते हुए कहा, 'ज़्यादातर आदमी तो कम उम्र की लड़की से प्यार करता है। लेकिन मैं सच बोलती हूँ, मेरा तबीयत थोड़ा खराब है, वरना मैं भी जवान हूँ।” उसकी बातों में दर्द और ईमानदारी दोनों झलक रहे थे।
फूला की आखिरी बात ने लेखक के दिल को गहराई तक छू लिया। उसने कहा, 'मैं तुमसे मोहब्बत करती हूँ। और तुम्हें और भी ज़्यादा प्यार करूँगी। क्यों? क्योंकि मुझे भी मोहब्बत चाहिए... थोड़ा।' उस वक्त लेखक को समझ आया कि मोहब्बत की कोई उम्र नहीं होती और फूला की ये सच्चाई उसे अंदर से हिला गई। उस रात उसकी सोच बदल गई और दिल में फूला के लिए एक अलग एहसास जग गया।
यह कहानी एक अनजान बस्ती की है जहाँ लोगों की ज़िंदगी संघर्ष और उम्मीदों से भरी है। यहाँ तारे नहीं, बस अहसास होते हैं। लेखक की मुलाकात फूला बाई से होती है, जो उम्रदराज़ होने के बावजूद मोहब्बत का इज़हार करती है। उसकी सच्चाई और दर्द लेखक के दिल को छू जाती है और उसकी सोच बदल जाती है।