बकरीद, जिसे ईद-उल-अजहा या ईद-उल-जुहा के नाम से भी जाना जाता है, इस्लाम धर्म का एक महत्वपूर्ण त्योहार है। यह पर्व केवल धार्मिक कर्मकांडों तक सीमित नहीं है, बल्कि इसमें मानवता, त्याग, विश्वास और समाज सेवा का भी गहरा संदेश छिपा होता है। साल 2025 में बकरीद 7 जून, शनिवार को मनाई जाएगी। आइए जानते हैं इस पर्व की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि, कुर्बानी का महत्व और बकरीद से जुड़े सामाजिक और आध्यात्मिक पहलुओं के बारे में।
बकरीद की ऐतिहासिक और धार्मिक पृष्ठभूमि
इस्लामिक परंपरा के अनुसार, बकरीद का सीधा संबंध हज़रत इब्राहिम (अलैहिस्सलाम) की उस परीक्षा से है, जिसमें अल्लाह ने उनके विश्वास को परखने के लिए उन्हें अपने सबसे प्रिय पुत्र की कुर्बानी देने का आदेश दिया। हज़रत इब्राहिम के लिए यह आदेश किसी बड़े इम्तेहान से कम नहीं था। उन्होंने अल्लाह के हुक्म को बिना किसी सवाल के स्वीकार किया और अपने बेटे इस्माइल को कुर्बानी के लिए तैयार किया।
हज़रत इस्माइल ने भी इस आदेश को अल्लाह की मर्जी मानकर स्वीकार कर लिया। लेकिन जैसे ही इब्राहिम ने अपने बेटे की कुर्बानी देने की कोशिश की, अल्लाह ने एक चमत्कार करते हुए इस्माइल की जगह एक मेमना भेज दिया। यह घटना इस्लामिक इतिहास में विश्वास, समर्पण और त्याग का प्रतीक बन गई, और तभी से बकरीद पर कुर्बानी की परंपरा शुरू हुई।
कुर्बानी का असली अर्थ: केवल जानवर की बलि नहीं
अक्सर बकरीद को लेकर बाहर के समाज में यह गलतफहमी होती है कि यह केवल जानवरों की बलि देने का त्योहार है। लेकिन वास्तविकता इससे कहीं गहरी और मानवीय है। कुर्बानी का मतलब है – अपने स्वार्थ, अहंकार और सांसारिक मोह से ऊपर उठकर अल्लाह की मर्जी के सामने खुद को पूरी तरह समर्पित करना। बकरीद पर दी जाने वाली कुर्बानी एक प्रतीक है उस आत्मिक बलिदान का, जिसमें व्यक्ति अल्लाह के हुक्म को सर्वोपरि मानता है।
इस दिन मुसलमान विशेष नमाज अदा करते हैं और फिर हलाल तरीके से बकरा, भेड़, गाय या ऊंट की कुर्बानी करते हैं। इस कुर्बानी के तीन हिस्से किए जाते हैं – एक हिस्सा खुद के लिए, दूसरा रिश्तेदारों और दोस्तों के लिए, और तीसरा गरीबों और जरूरतमंदों को दिया जाता है। यह बंटवारा समाज में समानता, भाईचारे और सहयोग की भावना को मजबूत करता है।
कुर्बानी और समाज सेवा का गहरा नाता
बकरीद सिर्फ धार्मिक पर्व नहीं है, बल्कि सामाजिक समानता और सेवा का भी प्रतीक है। जब कुर्बानी का मांस समाज के हर वर्ग तक पहुंचता है, तो यह इस्लाम के उस मूल सिद्धांत को उजागर करता है जो कहता है – "हर इंसान बराबर है"। यह पर्व सिखाता है कि सिर्फ अपने परिवार का पेट भरना ही नहीं, बल्कि जरूरतमंदों की भूख मिटाना भी इंसान का फर्ज है।
आज के समय में जब समाज वर्गों, जातियों और धर्मों में बंटा हुआ दिखाई देता है, बकरीद का यह संदेश और भी प्रासंगिक हो जाता है – इंसानियत सबसे ऊपर है।
हज और बकरीद का आपसी संबंध
बकरीद का एक और महत्वपूर्ण पहलू यह है कि यह हज के साथ जुड़ा हुआ होता है। हज इस्लाम के पांच स्तंभों में से एक है और हर सक्षम मुसलमान पर जीवन में एक बार मक्का जाकर हज करना फर्ज है। हज की प्रक्रिया के दौरान भी कुर्बानी दी जाती है, जो हज़रत इब्राहिम की उसी परंपरा को याद दिलाती है।इस तरह बकरीद और हज दोनों में ही त्याग, समर्पण और अल्लाह के प्रति सच्चे विश्वास की भावना प्रमुख होती है।
आधुनिक समाज में बकरीद का संदेश
आज के दौर में जब लोग अपने-अपने स्वार्थ में उलझे रहते हैं, बकरीद हमें यह सिखाती है कि सबसे बड़ा बलिदान वही है जो दूसरों के भले के लिए दिया जाए। त्याग और सेवा के इस संदेश को अपनाकर हम न केवल एक बेहतर इंसान बन सकते हैं, बल्कि एक सशक्त और समरस समाज की स्थापना भी कर सकते हैं।बकरीद यह भी सिखाती है कि धर्म केवल पूजा-पाठ का नाम नहीं, बल्कि एक जीवनशैली है जो इंसान को विनम्रता, उदारता और संवेदनशीलता के रास्ते पर चलने को प्रेरित करती है।
उत्सव का उल्लास: परंपरा और आधुनिकता का संगम
बकरीद के दिन सुबह विशेष ईद की नमाज अदा की जाती है। लोग नए कपड़े पहनते हैं, एक-दूसरे को गले लगाकर ईद की मुबारकबाद देते हैं। घरों में विशेष व्यंजन बनते हैं और रिश्तेदारों, दोस्तों तथा गरीबों को आमंत्रित करके भोजन कराया जाता है। यह पर्व सामाजिक समरसता और सौहार्द का सजीव उदाहरण बनता है।