उत्तर प्रदेश की न्यायिक व्यवस्था में एक बार फिर इतिहास खुद को दोहराने जा रहा है। इलाहाबाद हाईकोर्ट 36 वर्षों बाद सात से अधिक न्यायाधीशों की संयुक्त पीठ के गठन की ओर अग्रसर है। यह अभूतपूर्व निर्णय भारतीय न्याय प्रणाली में एक बार फिर ‘बड़ी पीठ’ के महत्व और प्रभाव को रेखांकित करता है।
लखनऊ: इलाहाबाद हाईकोर्ट ने भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (Bharatiya Nagarik Suraksha Sanhita – BNSS) की धारा 528 से जुड़े एक महत्वपूर्ण कानूनी प्रश्न को नौ-सदस्यीय पीठ को सौंप दिया है। यह मामला इस बात से जुड़ा है कि क्या हाईकोर्ट के पास BNSS की धारा 528 के तहत किसी प्राथमिकी (FIR) को रद्द करने का अधिकार है या नहीं। यह मुद्दा इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि BNSS को हाल ही में भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की जगह लागू किया गया है।
BNSS के अस्तित्व में आने से पहले, ऐसी स्थिति में CrPC की धारा 482 का इस्तेमाल किया जाता था, जिसके तहत हाईकोर्ट को अपनी 'इनहेरेंट पावर' (स्वाभाविक शक्ति) के तहत FIR रद्द करने का अधिकार प्राप्त था। लेकिन अब, नई संहिता में क्या वैसा ही अधिकार उपलब्ध है या नहीं, यह स्पष्ट नहीं है। इसलिए हाईकोर्ट ने इस कानूनी भ्रम को सुलझाने के लिए यह मामला बड़ी पीठ को भेजा है ताकि विस्तृत और सर्वमान्य निर्णय आ सके।
क्या है मामला?
यह मामला भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (Bharatiya Nagarik Suraksha Sanhita – BNSS) की धारा 528 के तहत प्राथमिकी रद्द करने की हाईकोर्ट की शक्ति से जुड़ा है। BNSS हाल ही में आपराधिक कानूनों में किए गए संशोधनों का हिस्सा है, जिसने भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 482 की जगह ली है। सवाल यह उठा कि क्या हाईकोर्ट BNSS की धारा 528 के तहत पूर्ववर्ती CrPC की तरह ही प्राथमिकी रद्द करने का अधिकार रखता है?
1989 का ऐतिहासिक फैसला और नई चुनौती
इससे पहले वर्ष 1989 में ‘रामलाल यादव बनाम उत्तर प्रदेश सरकार’ मामले में इलाहाबाद हाईकोर्ट की सात-सदस्यीय पीठ ने स्पष्ट रूप से कहा था कि प्राथमिकी रद्द करने की अर्जी दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 482 के तहत सुनवाई योग्य नहीं है। इसके बजाय याचिकाकर्ता को संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत ही राहत लेनी चाहिए। उस समय यह फैसला न्यायिक दृष्टिकोण से मील का पत्थर माना गया था।
अब, इसी निर्णय को न्यायाधीश अरुण कुमार सिंह देशवाल की एकल पीठ ने पुनः परीक्षण योग्य बताया है। उन्होंने कहा कि सुप्रीम कोर्ट के ताजा निर्णयों के आलोक में यह फैसला अब अप्रचलित हो चुका है। ऐसे में न्यायिक अनुशासन और ‘स्टेयर डेसिसिस’ (पूर्व निर्णयों का पालन) की भावना को सम्मान देते हुए उन्होंने मामले को नौ न्यायाधीशों की बड़ी पीठ के पास भेज दिया है।
सुप्रीम कोर्ट के ताजा निर्णयों का प्रभाव
न्यायाधीश देशवाल ने विशेष रूप से सुप्रीम कोर्ट के ‘हरियाणा सरकार बनाम भजन लाल’ (1990) और ‘निहारिका इंफ्रास्ट्रक्चर बनाम महाराष्ट्र सरकार’ (2021) मामलों का उल्लेख किया। इन फैसलों में शीर्ष अदालत ने स्पष्ट किया था कि जांच के दौरान भी अदालतों को हस्तक्षेप करने का अधिकार है, बशर्ते मामला असाधारण हो। इससे स्पष्ट हुआ कि यदि प्राथमिकी में प्रथम दृष्टया अपराध नहीं बनता, तो उसे रद्द किया जा सकता है।
इन प्रगतिशील व्याख्याओं ने सात न्यायाधीशों की पुरानी व्यवस्था को चुनौती दी और यह सवाल खड़ा हुआ कि क्या हाईकोर्ट अब भी प्राथमिकी को रद्द करने में असहाय है?
अब इतिहास की पुनरावृत्ति
इलाहाबाद हाईकोर्ट में नौ न्यायाधीशों की पीठ का गठन 36 वर्षों बाद किया जा रहा है। इससे पहले इतनी बड़ी पीठ वर्ष 1969 में गठित हुई थी, जब 28 न्यायाधीशों की पीठ ने उत्तर प्रदेश विधानसभा अध्यक्ष द्वारा दो न्यायाधीशों को गिरफ्तार करने के आदेश को रद्द किया था। वह निर्णय भारतीय न्यायिक इतिहास में सबसे बड़ी पीठ के रूप में दर्ज है और सुप्रीम कोर्ट द्वारा भी अनुमोदित किया गया था।
इस मामले में सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि एकल पीठ ने उच्चतर न्यायिक निर्णयों से असहमति के बावजूद, सीधे निर्णय देने की बजाय इसे बड़ी पीठ के पास भेजा। यह न्यायिक अनुशासन का अनुपम उदाहरण है और न्यायालयों में निर्णयों की निरंतरता बनाए रखने के सिद्धांत को बल देता है।