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स्नान पूर्णिमा से अनासर काल तक: जब स्वयं भगवान जगन्नाथ होते हैं बीमार, जानिए इस अलौकिक परंपरा का रहस्य

स्नान पूर्णिमा से अनासर काल तक: जब स्वयं भगवान जगन्नाथ होते हैं बीमार, जानिए इस अलौकिक परंपरा का रहस्य

भारत की धार्मिक और सांस्कृतिक धरोहर में कई ऐसी परंपराएं हैं जो न केवल श्रद्धा से जुड़ी होती हैं बल्कि उनके पीछे गूढ़ भावनाएं और गहरे आध्यात्मिक संदेश भी छिपे होते हैं। ऐसी ही एक विलक्षण और हृदयस्पर्शी परंपरा है — भगवान जगन्नाथ का बीमार पड़ना।

पुरी (ओडिशा) के जगन्नाथ मंदिर से जुड़ी यह परंपरा हर साल ज्येष्ठ पूर्णिमा से शुरू होती है और रथयात्रा तक चलती है। इसे ‘अनासर काल’ कहा जाता है। आइए जानते हैं कि स्नान पूर्णिमा से लेकर भगवान के एकांतवास और फिर रथयात्रा तक की यह यात्रा कितनी गहराई और भावना से भरी है।

स्नान पूर्णिमा: एक विशेष धार्मिक आयोजन

हर साल ज्येष्ठ माह की पूर्णिमा को भगवान जगन्नाथ, उनके भ्राता बलभद्र और बहन सुभद्रा को विशेष रूप से स्नान कराया जाता है। इस पर्व को ‘स्नान यात्रा’ या ‘स्नान पूर्णिमा’ कहा जाता है। इस दिन तीनों देव विग्रहों को मंदिर से बाहर लाया जाता है ताकि सभी भक्तजन उनके दर्शन कर सकें।

इसके बाद भगवानों को 108 स्वर्ण कलशों से स्नान कराया जाता है। इन कलशों में विभिन्न पवित्र नदियों के जल, चंदन, घी, गुलाबजल, दही और औषधियों का मिश्रण होता है। यह स्नान शुद्धिकरण और शरीर को शीतलता देने का प्रतीक होता है। स्नान के पश्चात भगवानों को राजसी वस्त्रों से सजाया जाता है, लेकिन इसके बाद होता है एक अनोखा मोड़—भगवान बीमार पड़ जाते हैं।

अनासर काल: जब भगवान लेते हैं विश्राम

स्नान पूर्णिमा के बाद, भगवान 15 दिन तक एकांतवास में रहते हैं, जिसे ‘अनासर’ कहा जाता है। इस दौरान मंदिर के गर्भगृह के पट बंद हो जाते हैं और किसी को भी भगवान के दर्शन नहीं होते। पुजारियों द्वारा भगवान की सेवा की जाती है जैसे किसी रोगी की की जाती है। उन्हें औषधीय काढ़ा, विशेष आहार और विश्राम दिया जाता है।

यह परंपरा युगों से चली आ रही है और इसे गहराई से समझने के लिए हमें उस लोककथा की ओर देखना होगा जिसमें भक्त और भगवान का पवित्र संबंध उजागर होता है।

भक्त माधव दास और भगवान की सेवा

इस परंपरा के पीछे एक अत्यंत भावुक कर देने वाली कथा प्रचलित है। कहा जाता है कि पुरी में माधव दास नामक एक भक्त रहा करते थे। वे भगवान जगन्नाथ के अनन्य भक्त थे और जीवनयापन हेतु भगवान के प्रसाद पर निर्भर रहते थे। एक बार वे गंभीर रूप से बीमार पड़ गए, लेकिन फिर भी उन्होंने न तो भगवान की सेवा छोड़ी और न ही वैद्य की सहायता ली।

लोगों ने उन्हें वैद्य के पास जाने की सलाह दी, लेकिन उन्होंने कहा, 'जब मेरे साथ खुद भगवान हैं, तो मुझे किसी वैद्य की आवश्यकता नहीं।' उनकी बीमारी बढ़ती गई और एक दिन वे अचेत हो गए। तभी स्वयं भगवान जगन्नाथ उनके पास प्रकट हुए और उनकी सेवा करने लगे।

माधव दास जब स्वस्थ हुए और उन्हें इस बात का भान हुआ कि स्वयं भगवान उनकी सेवा कर रहे थे, तो वे भावविभोर हो उठे। उन्होंने भगवान से पूछा, 'प्रभु! आपने मेरी सेवा क्यों की?' भगवान मुस्कराकर बोले, 'मैं अपने भक्तों का साथ कभी नहीं छोड़ता। तुम्हारे कर्मों का फल तुम्हें भोगना था, लेकिन जो बीमारी के 15 दिन बाकी थे, वो मैंने अपने ऊपर ले ली।'

यह घटना ज्येष्ठ पूर्णिमा को हुई थी। तभी से हर साल भगवान 15 दिन के लिए बीमार पड़ते हैं, और भक्त उन्हें नहीं देख पाते। इस एकांतवास को ही ‘अनासर काल’ कहा जाता है।

नयन उत्सव और रथ यात्रा: बीमारी से मुक्ति का उल्लास

इन 15 दिनों के पश्चात भगवान फिर से स्वस्थ हो जाते हैं और इसका उत्सव ‘नयन उत्सव’ के रूप में मनाया जाता है। नयन यानी दृष्टि—इस दिन भगवान के पुनः दर्शन होते हैं और अगले दिन शुरू होती है जगन्नाथ रथ यात्रा। यह यात्रा आषाढ़ शुक्ल द्वितीया को होती है, जिसमें भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा अपने विशाल रथों पर सवार होकर नगर भ्रमण करते हैं।

रथयात्रा का आयोजन अपने आप में एक दिव्य अनुभव होता है। श्रद्धालु रथ को खींचने के लिए आतुर रहते हैं क्योंकि मान्यता है कि रथ खींचने से पाप कटते हैं और मोक्ष की प्राप्ति होती है।

आध्यात्मिक महत्व

भगवान जगन्नाथ का हर साल बीमार होना केवल एक धार्मिक रस्म नहीं, बल्कि गहरे भावनात्मक और आध्यात्मिक महत्व की परंपरा है। यह हमें यह संदेश देती है कि भगवान सिर्फ पूजा का विषय नहीं हैं, बल्कि अपने भक्तों के सुख-दुख में बराबरी से भागीदार होते हैं। जब एक भक्त सच्चे मन से भगवान की भक्ति करता है, तो भगवान भी उसके कष्टों को अपना मान लेते हैं। यह परंपरा हमें यह भी सिखाती है कि भक्ति केवल आरती और पूजा तक सीमित नहीं है, बल्कि यह एक ऐसा रिश्ता है जिसमें भगवान अपने भक्तों की तकलीफ को महसूस करते हैं और उसे खुद पर ले लेते हैं। इससे यह भरोसा मजबूत होता है कि सच्चे दिल से किया गया प्रेम और विश्वास कभी व्यर्थ नहीं जाता।

जगन्नाथ मंदिर की यह परंपरा भारत की समृद्ध धार्मिक और सांस्कृतिक विरासत का एक अभिन्न हिस्सा है। स्नान पूर्णिमा, अनासर काल और रथ यात्रा केवल धार्मिक आयोजन नहीं, बल्कि भक्त और भगवान के बीच आत्मिक संबंध की मिसाल हैं।

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