राजस्थान को उसकी रंग-बिरंगी पोशाकों, ऊँटों, किलों और मरुस्थलीय सुंदरता के साथ-साथ जिस चीज़ ने सबसे ज्यादा अंतरराष्ट्रीय पहचान दिलाई है, वह है – उसका लोकनृत्य और संगीत। समय के साथ आधुनिकता ने भले ही कई परंपराएं बदल दी हों, लेकिन राज्य की लोक कला आज भी जीवंत है। यही कारण है कि भारत सरकार और यूनेस्को दोनों ही राजस्थान की सांस्कृतिक विरासत को विशेष दर्जा देते हैं।
राजस्थान के लोकनृत्य और संगीत न सिर्फ मनोरंजन का माध्यम हैं, बल्कि एक समृद्ध लोककथात्मक और सामाजिक परंपरा के संवाहक भी हैं। ये नृत्य और गीत अक्सर प्राकृतिक जीवन, वीरता की गाथाओं, प्रेम कथाओं और धार्मिक विश्वासों से जुड़े होते हैं।
लोक संगीत की विविध परंपराएँ
राजस्थानी लोकसंगीत की सबसे विशिष्ट पहचान उसकी भाषिक विविधता और भावप्रधान अभिव्यक्ति है। यहां के लोकगीत आमतौर पर क्षेत्रीय बोलियों — मारवाड़ी, मेवाड़ी, ढूंढाड़ी, शेखावाटी — में गाए जाते हैं।
राजस्थान में दो प्रमुख लोकसंगीत परंपराएं हैं
- मांगणियार समुदाय
- लंगा समुदाय
दोनों ही समुदाय पारंपरिक गीतों की प्रस्तुति में माहिर माने जाते हैं और पीढ़ियों से यह कार्य करते आ रहे हैं। इनके गीतों में अक्सर राजा-महाराजाओं की वीरता, प्रेम कथाएँ, भक्ति भजन और ऋतु आधारित लोकगीत शामिल होते हैं।
प्रमुख वाद्य यंत्र
- रावणहत्था: प्राचीन तार वाद्य, जिसे कथाओं के अनुसार रावण ने स्वयं बनाया था।
- कामायचा: केवल मांगणियारों द्वारा बजाया जाने वाला वाद्य यंत्र।
- खड़ताल, मंजीरा, ढोलक, बाँसुरी और नगाड़ा जैसे वाद्य रोज़मर्रा की प्रस्तुतियों में शामिल होते हैं।
लोकनृत्य दृश्यात्मक परंपराओं का परिचायक
राजस्थानी लोकनृत्य राज्य की सांस्कृतिक विविधता का प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। हर क्षेत्र और समुदाय का अपना अलग नृत्य है, जो उनके रहन-सहन और विश्वासों को दर्शाता है।
प्रमुख नृत्य शैलियाँ
- घूमर: महिलाओं द्वारा समूह में किया जाने वाला यह गोलाकार नृत्य अब राजस्थान की पहचान बन चुका है। UNESCO ने इसे अमूर्त सांस्कृतिक धरोहर की सूची में शामिल किया है।
- कालबेलिया: सांपों से जुड़े कालबेलिया समुदाय की महिलाएं इस नृत्य को साँपों की चाल की नकल करते हुए प्रस्तुत करती हैं। यह नृत्य UNESCO की विश्व धरोहर सूची में भी शामिल है।
- भवाई: महिलाएं सिर पर कई मटके रखकर, तलवार या कांच पर नृत्य करती हैं। यह नृत्य साहस और संतुलन का प्रतीक है।
- गैर: पुरुषों द्वारा किया जाने वाला यह नृत्य लकड़ी की लाठियों के साथ किया जाता है, जो होली और गणगौर जैसे पर्वों पर विशेष रूप से प्रस्तुत होता है।
- चरी नृत्य: इसमें महिलाएं सिर पर जलते हुए चिराग के साथ नृत्य करती हैं। यह अलवर और किशनगढ़ क्षेत्र में विशेष रूप से प्रचलित है।
अंतरराष्ट्रीय मंचों पर लोकप्रियता
राजस्थानी लोक कलाकारों की प्रतिभा अब न केवल भारत बल्कि विदेशों में भी सराही जा रही है। डेजर्ट फेस्टिवल (जैसलमेर), जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल, पुष्कर मेला जैसे आयोजनों में लोकनृत्य-संगीत मुख्य आकर्षण बनते हैं। इसके अलावा स्पिक मैके जैसे संगठनों के माध्यम से भी इन लोककलाओं को विद्यालयों और विश्वविद्यालयों तक पहुंचाया जा रहा है।
राज्य सरकार द्वारा लोक कलाकारों को प्रोत्साहन, छात्रवृत्ति एवं प्रशिक्षण कार्यक्रम भी संचालित किए जा रहे हैं ताकि ये परंपराएं आने वाली पीढ़ियों तक सुरक्षित रह सकें।