सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण आदेश जारी करते हुए केंद्र और राज्य सरकारों को निर्देश दिया है कि वे बच्चों के खिलाफ यौन अपराधों से जुड़े मामलों की तेजी से सुनवाई सुनिश्चित करने के लिए विशेष पॉक्सो (POCSO) अदालतों की संख्या बढ़ाएं।
नई दिल्ली: बच्चों के खिलाफ यौन अपराधों के मामलों की गंभीरता को देखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐतिहासिक और निर्णायक आदेश जारी करते हुए केंद्र और राज्य सरकारों को स्पष्ट निर्देश दिया है कि देशभर में विशेष पॉक्सो (POCSO) अदालतों की संख्या बढ़ाई जाए। कोर्ट ने कहा कि मौजूदा अदालतें बच्चों के साथ यौन उत्पीड़न के मामलों की बढ़ती संख्या और केस पेंडेंसी को निपटाने के लिए नाकाफी हैं। ऐसे में इन मामलों की त्वरित सुनवाई के लिए विशेष अदालतें प्राथमिकता के आधार पर स्थापित की जानी चाहिए।
POCSO मामलों में देरी: न्याय की राह मुश्किल
सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि पॉक्सो एक्ट के तहत दर्ज मामलों में जांच, चार्जशीट और ट्रायल समय पर पूरे नहीं हो पा रहे हैं। इसका कारण है – अदालतों की अपर्याप्त संख्या और संसाधनों की कमी। जस्टिस बेला एम त्रिवेदी और जस्टिस पीबी वराले की खंडपीठ ने कहा कि विशेष अदालतों की अनुपस्थिति में पीड़ित बच्चों और उनके परिवारों को समय पर न्याय नहीं मिल पा रहा, जिससे उनका मनोवैज्ञानिक और सामाजिक आघात और बढ़ता है।
कोर्ट ने खासतौर पर तमिलनाडु, बिहार, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, ओडिशा और महाराष्ट्र जैसे राज्यों का नाम लेकर कहा कि इन राज्यों में मामलों की संख्या बहुत अधिक है और वहां विशेष अदालतों की सख्त जरूरत है। कोर्ट ने इस बात पर भी चिंता जताई कि कई जिलों में 300 से ज्यादा पॉक्सो मामले लंबित हैं, बावजूद इसके वहां दो अदालतें भी नहीं हैं।
2019 के निर्देश का पालन अधूरा
गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट ने जुलाई 2019 में ही निर्देश दिया था कि जहां भी POCSO मामलों की एफआईआर की संख्या 100 से अधिक हो, वहां कम से कम एक विशेष अदालत होनी चाहिए। इसके बावजूद आज भी देश के कई जिलों में यह निर्देश जमीन पर उतरता नहीं दिख रहा। सुप्रीम कोर्ट ने वरिष्ठ अधिवक्ता वी. गिरी और उत्तरा बब्बर को एमिकस क्यूरी नियुक्त कर राज्यवार स्थिति की रिपोर्ट मांगी थी।
इनकी रिपोर्ट के आधार पर कोर्ट ने माना कि POCSO एक्ट के मामलों में न्याय व्यवस्था की स्थिति बेहद चिंताजनक है। कई मामलों में चार्जशीट दाखिल करने में महीनों की देरी हो रही है, जबकि कानून स्पष्ट रूप से सीमित समय में कार्रवाई की मांग करता है।
POCSO एक्ट और ट्रायल की समय सीमा
POCSO कानून के मुताबिक, बच्चों के साथ यौन अपराध के मामलों की जांच दो महीने के भीतर पूरी होनी चाहिए और ट्रायल भी एक साल के भीतर खत्म किया जाना चाहिए। लेकिन कोर्ट ने पाया कि यह नियम सिर्फ कागजों तक सीमित है। अदालतों की कमी और प्रशासनिक लापरवाही के कारण न्याय प्रणाली ठप होती जा रही है।
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) के आंकड़ों के अनुसार, भारत में हर साल बच्चों के खिलाफ यौन अपराधों के हजारों मामले दर्ज होते हैं। अकेले 2023 में करीब 60,000 से ज्यादा मामले दर्ज किए गए थे, जिनमें से बड़ी संख्या अभी भी अदालतों में लंबित है। ट्रायल लंबा खिंचने से आरोपी जमानत पर बाहर आ जाते हैं, जिससे पीड़ित और उनके परिवार को डर और सामाजिक शर्मिंदगी झेलनी पड़ती है।
राज्य सरकारों पर जिम्मेदारी
सुप्रीम कोर्ट ने सभी राज्यों को यह सुनिश्चित करने को कहा है कि:
- जिन जिलों में 300 से ज्यादा POCSO केस लंबित हैं, वहां कम से कम दो विशेष अदालतें बनाई जाएं।
- जहां भी 100 से ज्यादा POCSO एफआईआर हैं, वहां कम से कम एक विशेष अदालत तुरंत स्थापित की जाए।
- सभी अदालतों में जरूरी बुनियादी ढांचे, प्रशिक्षित न्यायाधीशों और महिला कर्मचारियों की नियुक्ति की जाए।
POCSO मामलों में अक्सर पीड़ित बच्चे होते हैं, जिन्हें न्यायिक प्रक्रिया के दौरान संवेदनशीलता की सबसे ज्यादा जरूरत होती है। कोर्ट ने यह भी कहा कि इन मामलों में कार्यवाही का माहौल पीड़ितों के अनुकूल होना चाहिए ताकि वे बिना डर और संकोच के अपनी बात कह सकें।